एक बार वशिष्ठ जी विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में गये। उनने बड़ा स्वागत सतकार और आतिथ्य किया। कुछ दिन उन्हें बड़े आदरपूर्वक अपने पास रखा। जब वशिष्ठ जी चलने लगे तो विश्वामित्र ने उन्हें एक हजार वर्ष की अपनी तपस्या का पुण्य फल उपहार स्वरूप दिया। बहुत दिन बाद संयोगवश विश्वामित्र भी वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। उनका भी वैसा ही स्वागत सत्कार हुआ। जब विश्वामित्र चलने लगे तो वशिष्ठ जी ने एक दिन के सत्संग का पुण्य फल उन्हें भेंट किया।
विश्वामित्र मन ही मन बहुत खिन्न हुए। वशिष्ठ को एक हजार वर्ष की तपस्या का पुण्य भेंट किया था। वैसा ही मूल्यवान उपहार न देकर वशिष्ठ जी ने केवल एक दिन के सत्संग का तुच्छ फल दिया। इसका कारण उनकी अनुदारता और मेरे प्रति तुच्छता की भावना का होना ही हो सकता है। यह दोनों ही बातें अनुचित हैं।
वशिष्ठ जी विश्वामित्र के मनोभाव को ताड़ गए और उनका समाधान करने के लिए विश्वामित्र को साथ लेकर विश्व भ्रमण के लिए चल दिये। चलते चलते दोनों वहाँ पहुँचे जहाँ शेष जी अपने फन पर पृथ्वी का बोझ लादे हुए बैठे थे। दोनों ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया और उनके समीप ठहर गये।
अवकाश का समय देखकर वशिष्ठ जी ने शेष जी से पूछा-भगवन् एक हजार वर्ष का तप अधिक मूल्यवान है या एक दिन का सत्संग? शेष जी ने कहा-इसका समाधान केवल वाणी से करने की अपेक्षा प्रत्यक्ष अनुभव से करना ही ठीक होगा। मैं सिर पर पृथ्वी का इतना भार लिए बैठा हूँ। जिसके पास तप बल है वह थोड़ी देर के लिए इस बोझ को अपने ऊपर ले लें। विश्वामित्र को तप बल पर गर्व था। उनने अपनी संचित एक हजार वर्ष की तपस्या के बल को एकत्रित करके उसके द्वारा पृथ्वी का बोझ अपने ऊपर लेने का प्रयत्न किया पर वह जरा भी नहीं उठी। अब वशिष्ठ जी को कहा गया कि वे एक दिन के सत्संग बल से पृथ्वी उठावें। वशिष्ठ जी ने प्रयत्न किया और पृथ्वी को आसानी से अपने ऊपर उठा लिया।
शेष जी ने कहा- ‘तप बल की महत्ता बहुत है। सारा विश्व उसी की शक्ति से गतिमान है। परंतु उसकी प्रेरणा और प्रगति का स्त्रोत सत्संग ही है। इसलिए उसकी महत्ता भी तप से भी बड़ी है।’
विश्वमित्र का समाधान हो गया और उनने अनुभव किया कि वशिष्ठ जी ने न तो कम मूल्य की वस्तु भेंट की थी और न उनका तिरस्कार किया था। सत्संग से ही तप की प्रेरणा मिलती है। इसलिए तप का पिता होने के कारण सत्संग को अधिक प्रशंसनीय माना गया है। यों शक्ति का उद्भव तो तप से ही होता है।