इतिहास साक्षी है, कि हमारा देश कि मिट्टी ऐसी है, जो कि देशहित, मानवहित के लिए देश के अनेक वीरों ने अपने प्राण मुस्कुराते हुये मृात भूमि पर सर्वत्र न्यौछावर कर बलिदान, शौर्य, निर्भीकता, कर्तव्य परायणता की गाथा के रूप में इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर दर्ज हो गये। जो कि आज की चकाचौंध स्वार्थी जीवन में मानों कहीं, अतीत में लुप्त हो गये हो।
क्योंकि आज के वर्तमान समय को देखते हुये देश युवाओं में बढ़ते विरोधी-देश प्रेम को समाप्त करने के लिए आवश्यक है, कि हम ऐसा वीरों की पराक्रम फलीभूत जीवन-गाथा अपने देश के युवा पीढि़ में जोर-शोर से संचारित करे, ताकि वे उक्त जीवन-गाथा से प्रेरित होकर देशभक्ति के मार्ग पर अपना विश्वास अडिग बनाने में सहायक सिद्ध हो।
जी हां हम आज चर्चा कर रहें ऐसी शख्सियत की, जो कि किसी भी व्यक्ति के परिचय की मोहताज नहीं बल्कि उस निडर योद्धा का नाम जुबां पर आते ही, पाकिस्तान द्वारा भारत पर प्रथम हमला जिसका दृश्य पल-भर के लिए, मानो आंखों के समक्ष प्रस्तुत सा हो जाता है। जी हां लेखक बात कर रहा है, ऐसे निष्ठा वान, अमर बलिदानी, कर्तव्य परायण, निर्भीकयोद्धा (सेवा संख्याक आईसी 521) सोमनाथ शर्मा की जो ऐसी विभूति है, अन्य वीर सैनिकों या आज की युवा पीढि़ उनके जीवन शैली से देश भक्ति की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।
सोमनाथ शर्मा जी का जन्म सन 31 जनवरी 1923 को हिमाचल के कांगडा जिले में हुआ था जो कि ब्रिटिश शासन काल में पंजाब प्रांत में आता था। शर्मा जी के पिता जी का नाम अमर नाथ शर्मा था जो कि सेना मेें डॉक्टर थे। शर्मा जी के मामा किशन दत्त वासुदेव सेना में ही लेफ्टिनेंट थे, सोम नाथ शर्मा जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने मामा जी के जीवन शैली से काफी प्रभावित थे। बचपन से ही दादा जी से प्राप्त संस्कारों का अनुसारण करते थे, इसलिए वो भागवत-गीता जैसे पवित्र गं्रथ को अपने साथ ही रखते थे।
सोमनाथ शर्मा की आरंभिक शिक्षा उत्तराखंड के नैनीताल के शेरवुड स्कूल में हुई, तत्पश्चात देहरादून के मिलिट्री स्कूल से स्नातक की परीक्षा पास कर 22 फरवरी 1942 को सोमनाथ शर्मा जी की नियुक्ति ब्रिटिश भारतीय सेना हैदराबाद रेजिमेंट की अष्टम बटालियन में हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उक्त रेजिमेंट कमांउ रेजिमेंट के नाम से विख्यात हुआ। नियुक्ति होने के उपरांत ही सोमनाथ शर्मा जी को द्वित्तीय विश्व युद्ध में अपने युद्ध-कौशल जापान के विरुद्ध दिखाने का मौका मिला। सोमनाथ शर्मा जी के रण कौशल व निर्भीकता के चलते रेजीमेंट के उच्च अधिकारी भी सोमनाथ शर्मा जी तारीफ करने को मजबूर होने लगे।
स्वतंत्रता के पश्चात पाकिस्तान ने अपना गिरगिट सा रूप दिखाना आरंभ कर दिया। पाकिस्तान ने 22 अक्तूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के श्री नगर हवाई अड्डे पर हमला कर दिया। यह हवाई अड्डा मात्र एक ऐसा स्थान था, जो कि घाटी को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता था। 27 अक्तबूर 1947 को हाई कमान द्वारा एक बैंच तैयार किया गया।
सोमनाथ शर्मा जी के बाये हाथ में फैक्चर (हॉकी खेलते समय) होने के बावजूद भी वह मोर्चे की कमान स्वयं संभालने हेतु उच्च अधिकारियों से बार-बार गुजारिश करने लगे। शर्मा जी, कि जिद् के समक्ष उच्चाधिकारियों ने कमाउं रेजिमेंट की चतुर्थ बटालियन, डेल्टा कंपनी की कमान शर्मा जी को सौंप दी। 31 अक्तबूर 1947 को श्री नगर पहुंचते ही शर्मा जी ने मोर्चा संभाल लिया। जिसका एक मात्र उद्देश्य उत्तर से श्री नगर की ओर की कमान संभालना था। दिनांक 3 नवम्बर 1947 को हालात सामान्य प्रतीत होने लगे। जिसके के चलते दो तिहाई टुकड़ी की वापस श्री नगर कूच का आदेश दिये गया। लेकिन शर्मा जी को टुकड़ी के साथ 3 बजे तक अर्लट रखने का आदेश दिया गया। मौका पाते ही प्रतिद्वंदी ने डेल्टा कंपनी को तीनों ओर से घेर लिया व ताबड़-तोड़ फायरिंग कर दी।
शर्मा जी द्वारा तत्काल ही अपनी बिग्रेडियर कमान को अग्रिम सूचना, प्रेषित की गई। प्रेषित संदेश में कहा गया “श्री मान, दुश्मन हमसे 50 गज की दूरी पर है, हमारी गिनती बहुत कम रह गई है, हम भयंकर गोली-बारी का सामना कर रहें हैं।”
प्रति उत्तर में आदेश प्राप्त हुआ जब तक आपकी सहायता के लिए सहायक दस्तां नहीं पहुंच जाता तब तक आप कैसे भी दुस्मन को रोके रखना है। ऐसी मुश्किल हालात में चोटिल होने के बावजूद भी सोमनाथ शर्मा जी सहायक सैनिकों की मैग्जिन में गोलियां भर-भर कर देते रहें। उस दौरान शर्मा जी का कथन था मैं आखरी गोली व आखरी जवान तक दुश्मन के समक्ष डटा रहूंगा, मैं अपनी जगह से एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा।
तभी अचानक एक बड़ा सा मोर्टार शर्मा जी को आकर लगा। जिसमें सोमनाथ शर्मा जी सदा के लिए, भारत माता के चरणों में सेवा अर्पित करते हुये बलिदान हो गये। तब तक सहायता के लिए सहायक दस्ता भी मोर्चे पर पहुंच चुका था। शर्मा जी के पार्थिव शरीर तीन दिन बाद बड़ी मुश्किल से प्राप्त हुआ, जो कि पहचान स्थिति में नहीं था। जिसकी शिनाख्त जेब से मिले गीता के पन्नों व बंदूक के कवर से संभव हो सकी। सोमनाथ शर्मा जी के अद्म्य साहस के देखते हुये, मरणोपरांत 21 जून 1950 को सर्वप्रथम परमवीर चक्र से नवाजा गया। जो कि उनके पिता श्री अमरनाथ शर्मा जी ने हासिल किया। भाग्य की विडम्बना देखिये जो भी सम्मान मिला, वह भी उनके भाई की पत्नि सावित्री बाई खानोलकर ने ही डिजाईन किया था।