गुरु गोविन्द सिंह ने ‘अमृत’ चखा कर पाँचों को खालसा की सदस्यता दिलाई
जब कोरोना वायरस की आपदा के बीच वैशाखी देशवासियों के लिए ख़ुशी का एक मौक़ा लेकर आया है, ये समय इस्लामी आक्रांताओं से लोहा लेकर खालसा पंथ की स्थापना करने वाले सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह जी को याद करने का भी है। गुरु ने 5 लोगों को ‘पंज प्यारे’ के रूप में चुना था, और ख़ुद खालसा के छठे सदस्य बने थे। यहाँ ये कहना भी सही होगा कि वो पाँचों ख़ुद से आगे आए थे। ये तब की बात है, जब औरंगज़ेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। 17वीं शताब्दी अपने अंतिम दिनों में थी। उसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह ने आनंदपुर साहिब के मैदान में हज़ारों लोगों को बुलाया। मैदान में एक बड़ा सा पंडाल, उसके सामने तख़्त और उस पर बैठे गुरु। साथ में वहाँ पर एक तम्बू भी था।
सन 1699 में गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। सिखों के इतिहास में ये एक बड़ा क्षण रहा है। खालसा की स्थापना का मकसद ही ये था कि मजहबी उत्पीड़न और अत्याचार से लड़ने के लिए ऐसे लोग तैयार किए जाएँ, जो धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए जान देने से भी नहीं हिचकें। इसलिए, गुरु गोविन्द सिंह ने वैशाखी के दिन इतनी बड़ी भीड़ एकत्रित की थी। आज वहाँ पर केशगढ़ साहिब गुरुद्वारा शान से खड़ा है। यही वो जगह है, जहाँ हाथ में चमकती हुई नंगी तलवार लिए गुरु गोविंद सिंह ने वहाँ उपस्थित जनता से एक बहुत बड़ी माँग रख दी थी। उन्हें ‘धर्म की रक्षा के लिए’ किसी का सिर चाहिए था।
सारी सभा में हलचल मच गई। रौद्र रूप धरे गुरु गोविन्द सिंह की इस माँग के बाद जो लोग आए, उन्होंने न सिर्फ़ अपनी बहादुरी से देश को गौरवान्वित किया बल्कि जाति-पाती के बंधनों को तोड़ने में भी अहम भूमिका निभाई। एक व्यक्ति आगे आया। गुरु गोविन्द सिंह उसे तम्बू में ले गए और खचाक…! जब वो बाहर आए तो उनके तलवार पर रक्त लगा हुआ था और उन्होंने फिर से ऐसी ही माँग रख दी। एक के बाद एक कर के पाँच लोग सामने आए और यही प्रक्रिया दोहराई गई। कई लोगों को ऐसा लग रहा था कि कहीं गुरु पागल तो नहीं हो गए हैं? वो अपने ही लोगों को मार डाल रहे हैं। लेकिन, उनके मन में तो कुछ और ही चल रहा था।
अंत में गुरु गोविन्द सिंह फिर से तम्बू में गए और जब वो वापस लौटे तो सभा में उपस्थित सभी लोग हतप्रभ थे। उनके साथ वो पाँचों बहादुर थे, जिन्होंने अपने शीश अर्पित करने का साहस किया था। जिन्दा और सलामत। लोगों को समझ आ गया कि ये गुरु की एक परीक्षा थी, जिसमें विरलों को ही उत्तीर्ण होना था। यही हुआ। ये ही ‘पंज प्यारे’ कहलाए और साथ ही ख़ालसा के पहले पाँच सदस्य भी यही बने। फिर गुरु गोविन्द सिंह छठे सदस्य बने। इनमें दया राम, धरम दास, हिम्मत राय, मोहकाम चंद और साहिब चंद शामिल थे। इसके बाद उन सभी को ‘सिंह’ सरनेम दिया गया। ख़ुद गुरु गोविन्द भी ‘राय’ से ‘सिंह’ बने।
गुरु गोविन्द सिंह ने वहीं पर खालसा पंथ की पहली प्रक्रिया पूरी की। उन्होंने एक लोहे के मर्तबान में पानी और चीनी को तलवार से मिलाया और इसे ही उन्होंने अमृत नाम दिया। जिस प्रक्रिया से गुरु ने उन पाँचों को खालसा की सदस्यता दिलाई, उसी प्रक्रिया से वापस उन पाँचों ने मिल कर गुरु को सदस्यता दिलाई। पुरुषों को ‘सिंह’ और महिलाओं को ‘कौर’ सरनेम दिया गया। तम्बाकू का सेवन नहीं, हलाला मीट का सेवन नहीं, व्यभिचार नहीं और शराब का सेवन नहीं- खालसा पंथ के लिए कई नियम-कायदे तय किए गए, जो आवश्यक थे। उन्हें एक ख़ास ड्रेस कोड भी दिया गया।
गुरु गोविन्द सिंह ने पाँचों को भगवा वस्त्र पहनाए थे। असल में गुरु गोविन्द सिंह ने पहले ही कह दिया था कि वो किसी का शीश माँग रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं कि बाकी उन्हें प्यारे नहीं है। पूरी संगत उन्हें प्रिय है लेकिन एक ख़ास कार्य के लिए उन्हें ऐसे ही लोग चाहिए। इन पाँचों में हर वर्ग के लोग शामिल थे- लाहौर के एक व्यक्ति से लेकर हस्तिनापुर के जाट तक। द्वारका के एक कपड़े सिलने वाले से लेकर एक नाइ तक। यानी, पाँचों में एक क्षत्रिय था, एक जाट और तीन ऐसे लोग थे- जो उस समुदाय से आते थे जिन्हें कई लोग ‘नीच जाति’ कहते थे। गुरु का सन्देश जिसने समझ लिया, वो सच्चा सिख बन गया।
ख़ालसा को एक ख़ास पहचान दी है, एक ख़ास कार्य सौंपा गया और इसीलिए संगत में ये ख़ास हुए। आगे के कई युद्धों में खालसा पंथ ने जो बहादुरी दिखाई, वो तो इतिहास है। (अप्रैल 13, 2020) को वही तारीख है, जब 1699 में गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। 321 साल हो गए लेकिन सिखों का मातृभूमि और धर्म के प्रति आस्था अडिग ही होती चली गई। गुरु गोविन्द सिंह ने एक तरह से समुदाय को पुनर्जीवन दिया।